ज़िंदगी के हाइवे पर चलते चलते,
कभी कभी पगडंडियों पर कुछ किताबें कुछ पन्ने बिखरे मिलते रहते है..
इस जगह उन्हें समेटने की कोशिश कर रहा हूँ ....
देव :एक फ़क़ीर...!
चलो दिल को छूलें...
सोमवार, 12 सितंबर 2011
अकेले
हम यहाँ अकेले क्यों रहते हैं दादी हमारे साथ क्यों नहीं रहतीं ?
बेटे ! हम बड़े अफसर हो गए हैं ना इस लिए.... और फिर बेटा! वो अब बूढ़ी भी हो चली हैं ,
हमें जब कोई "बेटा" कहकर बुलाता है तो बहुत अच्छा लगता है.....
आपको अच्छा नहीं लगता क्या?
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